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Friday, March 31, 2006

"शायद इसे ही प्यार कहते है"

जब मन न लगे किताबों में,
परिभाषाओं में,हिसाबों में,
ख्वाबों में आये एक चेहरा,
मन उड़ने लगे हवाओं में,
जागते हुवे भी "कवि" सोये‍‍-सोये से रहते है,
शायद इसे ही प्यार कहते है ।

उफ! उस चेहरे की सादगी,
पत्थर भी करने लगे बंदगी,
देखकर चेहरे की मासूमियत,
जीना सीख ले खुद जिंदगी,
रात‍‍-दिन अपने आप से "कवि",
यही कहते रहते है,
शायद इसे ही प्यार कहते है ।

तुम्हारी उन आँखों का नूर,
छाया मूझ पर जिनका सुरुर,
जैसे दूर तक फैली शबनम में,
चमक रहे दो कोहीनूर,
बिन पिए भी "कवि",
हरदम नशे मेँ रहते है,
शायद इसे ही प्यार कहते है ।

माथे की वो लकीर सवालियाँ,
हँसते गालो में खिलती कलियाँ,
कल-‍कल नदी कर रही जैसे,
किनारों से अटखेलियाँ,
कुदरत के नजारों में भी "कवि",
तुम ही कों खोजा करते है,
शायद इसे ही प्यार कहते है ।

तुम्हारे बालों की जिससे करु तुलना,
नही कुदरत में ऐसी कोई "रचना",
चेहरे पर झुलते रहते हरदम,
चाहता हुँ कभी उनसे खेलना,
लहराते हुए इनको "कवि",
बस देखा ही करते है,
शायद इसे ही प्यार कहते है ।

लिखकर तुम्हारे बारे में,
यादों को रख मन के पिटारे में,
मिलता न होगा ऐसा सुकुन,
कबीर को भी एकतारे में,
एक बार फिर लिखने की आस में "कवि",
अब कलम रखते है,
शायद इसे ही प्यार कहते है ।

हाँ ! इसे ही तो प्यार कहते है ।

4 Comments:

Blogger Anusha said...

So there are some hidden and unknown talents in u too..Really nice poems Sachin...

Find time to write some more..

3:17 AM  
Blogger main_sachchu_nadan said...

hey thx anusha :)

5:55 AM  
Blogger Anusha said...

so when can we expect to see another one? or is IIT not letting the kavi within?

7:49 AM  
Blogger Unknown said...

excellent piece. keep it up.

9:20 PM  

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