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Thursday, March 31, 2016

"संयम"
ग़र समंदर ख़ामोश ना रहे, बस ताक़त के जोश में रहे , क़यामत उसके आगोश में रहे , भोली नदिया कैसे उससे घुले, प्यार के अल्फ़ाज़ कहे ?
ग़र दरिया में हरदम रहे उफ़ान , अपने किनारों की भूले वो पहचान , डुबाता चले हर पेड़, जंतु , मकान, नन्ही बतख़, कैसे बनाए उसे अपना क्रीड़ा मैदान ?
ग़र विशाल वृक्ष वो वट , पत्तियों से न रोके धूप-बारिश विकट, टहनियों पे उगाये काँटों के झुरमुट , नाज़ुक़ गिलहरी कैसे उस पर दौड़े सरपट ?
ग़र पर्वत को अपनी स्थिरता खले , ढलकते पत्थरों की गड़गड़ाहट सुनने वो मचले, हिले ; जिम्मेदारी की मिट्टी न अपने पर बाँध ले , फूलों की वो प्यारी क्यारी, कैसे उसकी गोद में खिले ?