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Friday, March 31, 2006

"विडंबना"

आज मन फिर उदास है,
फिर भारी‍‍‍‍‍‍‍‍-भारी सी हर साँस है ।
शायद कोई साथी अपने से छूटा है,
या फिर कोई सपना टूटा है ।
वैसे तो रब ने सपने सभी में बाँटे है,
माना राहों में कुछ फूल, कुछ काँटें है,
पर यहा तो शायद रास्ता ही गायब है,
जब चंचल ह्रदय जब शरीर की सेना का नायब है,
लक्ष्य तय होता है हर रात,
कसम होती है अंत तक लड़ने की बात ,
और जोशो‍-खरोश के साथ होती भी है शुरुआत,
पर हमेशा ही क्यों बीच में डगमगा जाते है,
जैसे नए‍-नए ब्राह्मण बीच भोजन ही अघा जाते है ।
क्यो रुक जाते है तूफानों से बढ़ते कदम,
जिनका हमेशा वही बहाना साथ नहीं कोई हम-दम ।
दुनिया कहती है इसे कामचोरी,
मगर यह है अपने अंदर की कमजोरी ।
व्यर्थ है अच्छाईयाँ अपनाना,
गर न त्यागना बुराईयाँ आता है,
एक साथ कई रास्तो पर चलने की कोशिश में,
मुसाफिर मंजिल ही भूल जाता है ।
चिर संघर्ष के काल में भी,
परीक्षाओं के साल में भी,
ह्रदय पक्षी प्रेम-गीत गाते है,
कमजोर बुध्दि-विवेक माया के बंधन तोड़ नहीं पाते है ।
तब ही देना पड़ता है अपने हाथों से सपनों को तर्पण,
जब होता नहीं है लक्ष्य कों, मन का पूरा समर्पण ।
फिर भी एक आँस है,
किस्मत का "दरवाजा"(GATE) खुलेगा,
जो चाहा है पूरा न सही,
आधा ही मिलेगा ।

आधा तो मिलेगा ही ॥

"शायद इसे ही प्यार कहते है"

जब मन न लगे किताबों में,
परिभाषाओं में,हिसाबों में,
ख्वाबों में आये एक चेहरा,
मन उड़ने लगे हवाओं में,
जागते हुवे भी "कवि" सोये‍‍-सोये से रहते है,
शायद इसे ही प्यार कहते है ।

उफ! उस चेहरे की सादगी,
पत्थर भी करने लगे बंदगी,
देखकर चेहरे की मासूमियत,
जीना सीख ले खुद जिंदगी,
रात‍‍-दिन अपने आप से "कवि",
यही कहते रहते है,
शायद इसे ही प्यार कहते है ।

तुम्हारी उन आँखों का नूर,
छाया मूझ पर जिनका सुरुर,
जैसे दूर तक फैली शबनम में,
चमक रहे दो कोहीनूर,
बिन पिए भी "कवि",
हरदम नशे मेँ रहते है,
शायद इसे ही प्यार कहते है ।

माथे की वो लकीर सवालियाँ,
हँसते गालो में खिलती कलियाँ,
कल-‍कल नदी कर रही जैसे,
किनारों से अटखेलियाँ,
कुदरत के नजारों में भी "कवि",
तुम ही कों खोजा करते है,
शायद इसे ही प्यार कहते है ।

तुम्हारे बालों की जिससे करु तुलना,
नही कुदरत में ऐसी कोई "रचना",
चेहरे पर झुलते रहते हरदम,
चाहता हुँ कभी उनसे खेलना,
लहराते हुए इनको "कवि",
बस देखा ही करते है,
शायद इसे ही प्यार कहते है ।

लिखकर तुम्हारे बारे में,
यादों को रख मन के पिटारे में,
मिलता न होगा ऐसा सुकुन,
कबीर को भी एकतारे में,
एक बार फिर लिखने की आस में "कवि",
अब कलम रखते है,
शायद इसे ही प्यार कहते है ।

हाँ ! इसे ही तो प्यार कहते है ।