"विडंबना"
आज मन फिर उदास है,
फिर भारी-भारी सी हर साँस है ।
शायद कोई साथी अपने से छूटा है,
या फिर कोई सपना टूटा है ।
वैसे तो रब ने सपने सभी में बाँटे है,
माना राहों में कुछ फूल, कुछ काँटें है,
पर यहा तो शायद रास्ता ही गायब है,
जब चंचल ह्रदय जब शरीर की सेना का नायब है,
लक्ष्य तय होता है हर रात,
कसम होती है अंत तक लड़ने की बात ,
और जोशो-खरोश के साथ होती भी है शुरुआत,
पर हमेशा ही क्यों बीच में डगमगा जाते है,
जैसे नए-नए ब्राह्मण बीच भोजन ही अघा जाते है ।
क्यो रुक जाते है तूफानों से बढ़ते कदम,
जिनका हमेशा वही बहाना साथ नहीं कोई हम-दम ।
दुनिया कहती है इसे कामचोरी,
मगर यह है अपने अंदर की कमजोरी ।
व्यर्थ है अच्छाईयाँ अपनाना,
गर न त्यागना बुराईयाँ आता है,
एक साथ कई रास्तो पर चलने की कोशिश में,
मुसाफिर मंजिल ही भूल जाता है ।
चिर संघर्ष के काल में भी,
परीक्षाओं के साल में भी,
ह्रदय पक्षी प्रेम-गीत गाते है,
कमजोर बुध्दि-विवेक माया के बंधन तोड़ नहीं पाते है ।
तब ही देना पड़ता है अपने हाथों से सपनों को तर्पण,
जब होता नहीं है लक्ष्य कों, मन का पूरा समर्पण ।
फिर भी एक आँस है,
किस्मत का "दरवाजा"(GATE) खुलेगा,
जो चाहा है पूरा न सही,
आधा ही मिलेगा ।
आधा तो मिलेगा ही ॥